फिल्म समीक्षा: लाजवाब अभिनय और बेजोड़ स्क्रिप्ट का निचोड़ हैं 'मद्रास कैफे'

Monday, August 26, 2013 17:19 IST
By Santa Banta News Network
अभिनय- जॉन अब्राहम, नरगिस फाखरी, राशि खन्ना, पीयूष पांडे, प्रकाश बेलावाडी, अजय रत्नम, सिद्धार्थ बासु, दिबांग (गेस्ट रोल)

निर्माता- जॉन अब्राहम

निर्दशक- शुजीत सरकार

गीत- शांतनु मोइत्रा

सबसे पहले तो फिल्म 'मद्रास कैफे' के माध्यम से एक बेहद सवेदनशील मुद्दे को उठाने के लिए निर्माता और निर्देशकों की हिम्मत की दाद देनी पड़ेगी। जिन्होंने एक ऐसे विषय पर फिल्म बनाने की सोची जिसका जिक्र किसी इतिहास के पन्ने पर नहीं हैं। यह फिल्म केवल एक मनोरंजन का साधन भर नहीं बल्कि हमारे इतिहास की एक अलिखित घटना का स्पष्ट चित्रण हैं। जिसे फ़िल्मी अभिनेताओ ने बेहद सावधानी और संजीदगी से पर्दे पर उतारा हैं। जॉन की शानदार अभिनय वाली इस पॉलिटिकल थ्रिलर फिल्म को बहुत सादगी और स्वच्छता से पेश किया गया हैं। जो अपने विषय से एक कदम भी नहीं भटकती।

फिल्म में जॉन अब्राहम की अब तक की सबसे उम्दा अदाकारी, सुजीत सरकार के सबसे उत्तम और सुघड़ निर्देशन, और फिल्म की यथार्थवादी पृष्ठभूमि बेमिसाल हैं। 80-90 के दशक के समय की कहानी पर फिल्म बनाने वालो की जबर्दस्त खोज और बेजोड़ फिल्मांकन की गहराई ने फिल्म को एक अलग ही श्रेणी में रख दिया हैं। फिल्म में श्रीलंका में हुई सिविल वार को जितनी संजीदगी से लिखा गया हैं, उतनी ही संजीदगी और सुगढ़ता से दर्शाय भी गया है।

फिल्म की कहानी श्रीलंका सिविल वॉर पर आधारित हैं। जिसमें एक तमिल संगघटन अपनी आजादी के लिए लड़ाई लड़ रहा हैं। इस संगघटन का नेता अन्ना भास्करन (अजय रत्नम) हैं। अन्ना चाहता है कि तमिलनाडू को भी अलग से एक राष्ट्र घोषित कर दिया जाए। क्योंकि वह खुद को इंडियन नहीं कहलाना चाहता हैं। जिसके लिए वह एक संघटन एलटीएफ (लिब्रेशन ऑफ तमिल फ्रंट) का निर्माण करता हैं। इस संघटन का काम इंडियन शब्द से खुद को अलग करना हैं। वहीँ रिसर्च ऐंड अनैलेसिस विंग के हेड रॉबिन दत्ता (सिद्धार्थ बसु) पड़ोसी देश श्रीलंका में चल रही इस सिविल वॉर से परेशान हैं। जिसके लिए वह एजेंट विक्रम सिंह (जॉन अब्राहम) को शान्ति वार्ता कर वॉर को रोकने और शांति से सबकुछ खत्म करने के लिए जाफना भेजते हैं।

जाफना में विक्रम का काम एलटीएफ (लिब्रेशन ऑफ तमिल फ्रंट) से संबंध रखने वाले लीडर अन्ना को हिंसात्मक गतिविधियों से रोकना और शांति सेना को इलाके का कब्जा देने के लिए तैयार करना। लेकिन बाद में विक्रम को पता चलता है कि यहां और भी बड़ी साजिश रची जा रही है। वो साजिश हैं, भारत के पूर्व प्रधान मंत्री को मारने की। जिसके लिए वह अपने साथियों को भेजता हैं। जिसकी जानकारी विक्रम और रॉबिन दत्ता को भी पहले ही लग जाती हैं। लेकिन वह इसे रोक पाते हैं या नहीं ये जानने के लिए फिल्म देखे। साथ ही उसे यह भी पता चलता हैं कि उन्ही के कुछ आदमी इस संघटन से मिले हुए हैं। इसके बाद विक्रम की मुलाकात जया (नर्गिस फाखरी) से होती हैं जो एक रिपोर्टर हैं और श्रीलंका में चल रही इन समस्याओं को कवर कर रही है। जया भी विक्रम की काफी मदद करती है।

अन्ना अपनी इस लड़ाई में ब्रिटिश देशों से भी मदद लेता है। वहीँ इंडिया को तेजी से विकास की और बढ़ते देख ब्रिटिश भी चाहते हैं कि उन्हें भारत पर राज्य करने को मिल जाए इसलिए वो अन्ना की मदद करते हैं ताकि उन्हें भी फायदा मिले।

फिल्म में जिस तरह से युद्ध के जबरदस्त द्रश्यों को दिखाया गया हैं, वह दिल दहला देने वाले हैं। फिल्म में बिना मतलब की चीजो को नहीं जोड़ा गया हैं। साथ ही जॉन के हाव-भाव इतने दमदार हैं जिनमें एक वास्तविक दर्द नज़र आता हैं। फिल्म में नाटकीयता नहीं हैं, सिर्फ वही हैं जिसकी जरुरत हैं।

अगर फिल्म में अभिनय का की बात की जाए तो, फिल्म की कहानी को जीवंत बनाने में किसी ने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी हैं। हर एक अभिनेता अपने किरदार में ऐसा ढला हैं मानो वास्तव में घटना आपके सामने घट रही हो। फिल्म में जॉन अब्राहम के अभिनय की किसी से कोई तुलना नहीं की जा सकती। उन्होंने इसमें इतनी बेहतर परफॉरमेन्स दी हैं कि इसे उनकी अब तक की सबसे बेहतर परफॉरमेन्स ही कहा जा सकता हैं। वहीँ पत्रकार के किरदार में नर्गिस ने भी अच्छा काम किया हैं। सिद्धार्थ बसु कैमरे के सामने अपनी सहजता के लिए जाने जाते हैं। वहीँ इस फिल्म में भी देखा जा सकता हैं। वहीँ अजय रत्नम ने अन्ना के किरदार में एक विद्रोही की सटीक परिभाषा गढ़ी हैं।

जॉन अब्राहम ने अपने एक साक्षात्कार के दौरान कहा,"मद्रास कैफे के जरिये वो इतिहास के एक ऐसे बड़े वाक्ये को आज की युवा पीढ़ी के सामने लाना चाहते हैं जिसके बारे में हमारी इतिहास की किताबों में भी कुछ नहीं लिखा है। वह कहते हैं कि इस फिल्म के जरिये वो मनोरंजन के साथ इस घटना से भी यंग जेनरेशन को रुबरु कराना चाहते हैं।"

अंत में, फिल्म 'मद्रास कैफे' अपने आप में निर्माताओं की एक उत्कार्ष्ट रचना हैं, जिसमें एक ऐसे आदर्श मुद्दे को बड़ी इमानदारी के साथ दर्शाया गया हैं, जो किसी एक सम्प्रदाय से सम्बंधित हैं, लेकिन यह एक ऐसा मुद्दा हैं जिसे हर किसी को देखना चाहिए। मसाले और मनोरंजन से रहित एक व्यवहारिक मुद्दे को देखने एक बार तो जरुर जाना चाहिए।
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